उत्तराखंड

साथी डॉक्टरों से जुदा है डॉ NS बिष्ट की सोच, सफेद पट्टी लगाकर दिया शांति, सद्भावना और समानता का संदेश

डॉ NS बिष्ट बोले मौजूॅ मुद्दे से भटक रही है बहस

मुख्य बातें……

1 : झगडना पुरातनवाद है। विज्ञान उदारता बराबरी और जनतन्त्र का पर्याय है।

2 : लोकतन्त्र में किसी को हक नहीं कि दूसरों पर अपनी संस्कृति और विचार थोपे। या जुबानी हिंसा दिखाये।

3 : चरमवाद, अतिवाद किसी के लिए भी सही नहीं, न बाबाओं के लिए न वैज्ञानिकों के लिए

4 : हम सभी बराबरी का विज्ञान ही सीख रहे हैं- धोंस जमाना दूसरों को नीचा दिखाना अमानवीय अवैज्ञानिक और अलोकतान्त्रिक है

देहरादून । विज्ञान में बराबरी की बहस होती है, तथ्यों को बारीकी से परखा जाता है। सिद्धान्तों को प्रयोगों की कसौटी से गुजारा जाता है। आयुर्वेद बनाम आयुर्विज्ञान की बहस में यह कहीं नजर नहीं आता। सिर्फ जुबानी धींगामुश्ती और अखाड़ेबाजी ही दिख रही है। ऐसे में दवाओं और दावों की सच्चाई का पता नही लगने वाला। कूटविज्ञान का पांडित्य और विज्ञान की मूर्खता का विषय गैरजरूरी था- जो कि आयुर्वेदधर्मियों की तरफ से उठाया गया। लाखों बेरोजगार आयुर्वेदिक डाक्टर इस सबमें कहीं नहीं है- इस देश की नागरिकता और शिक्षा होने के बावजूद उनसे दोयम दर्जे का व्यवहार जारी है। एलोपैथिक नर्सिंग होम उनको खटाकर गाढ़ी कमाई तो करते ही है सरकारी तंत्र में भी उनको बराबर का नही देखा जाता। उनमें से ज्यादातर छात्र प्रीमेडिकल की परीक्षाओं से गुजरे हुये भी होते हैं। व्यवसाय की दृष्टि से देखें तो विज्ञान आज कमाई का सबसे बडा़ जरिया है। आस्था को विज्ञान बताकर विज्ञान की तकनीक के सहारे बेचा तो जा सकता है किन्तु उसमें वैज्ञानिकता नही लायी जा सकती। इसलिए आयुर्वेद बनाम आयुर्विज्ञान की यह बहस शुरू से ही असमान और गैरजरूरी है।

पुरातनवादी शोध की बातें तो करते हैं लेकिन ईलाज करके दिखाने में चूक जाते हैं। दवा के बदले दावे ही मरीजों को बेचे जाते हैं। यह सच है कि आस्था अपने पुराने ज्ञान के सहारे जरूरतमंदो के अज्ञान का फायदा उठाया करती है – किन्तु विज्ञान भी आत्ममुग्धता और श्रेष्ठतावाद का शिकार है। जरूरतों के वर्गीकरण में उसका कोई सानी नही। जो विज्ञान बराबरी के लिए बना है वह गरीब रोगियों को और गरीब करके एक विशेषाधिकारयुक्त सुविधा- सम्पन्न समाज को ही आगे बड़ा रहा है।

एक गौर करने वाली बात यह भी है कि भारत जैसे बहुलतावादी देश को सिर्फ विज्ञान के पश्चिमी माॅडल की नकल पर नही चला सकते। आयुर्वेद भले ही आयुर्विज्ञान न हो – उसमें वैज्ञानिकता जोड़ी जा सकती है। आयुर्वेद को और पीछे धकेलने के बजाय उसे संस्कृत के श्लोकों से बाहर निकालना होगा। संस्कृत पाण्डित्य और वेदों की भाषा है, ठीक लैटिन या ग्रीक की तरह आमजन की भाषा नही। वैज्ञानिकता लाने के लिए आयुर्वेद को संस्कृत के बजाय हिन्दी और अंग्रेजी में पढाया जाय – ताकि उसमें खुलापन आ सके। आयुर्वेद के छात्रों को प्रारम्भ से ही आधुनिक विज्ञान की पहुॅच की सुविधा दी जाय। कम से कम सामान्य शल्य चिकित्सा का काम उनको सिखाया जाय।

एलोपैथी उभरता हुआ विज्ञान है और शिक्षित वर्ग में सहज ग्राह्य है। किन्तु ऐसा नही है कि आयुर्वेद के साथ मिलकर वो नवाचार, नवशोध नही कर सकता । मिशाल के लिए- ऐलोपैथी की सबसे बड़ी ताकत यानि सूक्ष्म और अदृश्य का पता लगा पाना ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बनती जा रही है। हम ऐसी दवा नही बना पाते जो रोग की एक से अधिक मैकेनिजम पर एक साथ प्रभावी हो। क्योकि रोग और उपापचय जटिल प्रक्रियाओं से बनते है ऐसे में आयुर्वेद का स्थूल प्रभाव कारगर न भी हो तो शोध के लिऐ प्रेरित कर सकता है।

कुल मिलाकर आयुर्वेद का आधुनिकीकरण और आयुर्वेद डाक्टरों का चिकित्सा सेवा में समावेश ही बहस के केन्द्र में होना चाहिये। आधुनिक विज्ञान की सारी सुविधायें भोग रहे योगी और बाबाओं को चाहिये की वे विज्ञान के आधुनिक विचारों को भी अपनायें जिसके मूल में उदारता और समानता है। किसी भी लोकतंत्र में अंधविश्वास और कूटविज्ञान का सुरक्षाबोध विज्ञान की जीवटता और बौद्धिक संघर्ष पर हावी नहीं होना चाहिए।

अन्त में विरोध पुरानी पैथियों और बाबाओं का नही – उस सोच का है जो शिक्षित और वैज्ञानिक विचारधारा के लोगों को पाश्चात्य और देशद्रोही समझते हैं। संस्कृतिगान देशभक्ति का प्रमाण नही है। सच्ची देशभक्ति विवकेपूर्ण, निरपेक्ष, निस्वार्थ सेवा में है।

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